इंजीनियर बनने के सपने को पीछे छोड़ भोजपुरी सिनेमा पर लगे अश्लीलता के दाग को छुटाने की कोशिश कर रहा एक युवा निर्देशक इन दिनों सेंसर बोर्ड के मुंबई कार्यालय के चक्कर काट रहा है। सामाजिक समरसता और महिला सशक्तिकरण पर बनी उसकी फिल्म ‘जया’ को सेंसर बोर्ड ने सिर्फ इसलिए सेंसर सर्टिफिकेट देने से इन्कार कर दिया है कि फिल्म की नायिका फिल्म के क्लामेक्स में अकेले रहने का फैसला कर लेती है। सेंसर बोर्ड की परीक्षण समिति (एग्जामिनिंग कमेटी) के सदस्य अब भी यही मानते हैं कि बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिना पति के सहारे किसी महिला का समाज में रहना ठीक नहीं है!
भोजपुरी सिनेमा के दिग्गज निर्माता रत्नाकर प्रसाद की फिल्म ‘जया’ के निर्देशक वही धीरू यादव हैं जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा में साफ सुधरी फिल्में बनाने का इन दिनों बीड़ा उठा रखा है। ‘अमर उजाला’ से एक मुलाकात में वह बताते हैं, ‘मेरी तो एनआईटी में बढ़िया रैंकिंग आई थी। घरवाले चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं। कोटा में चार साल रहकर मैंने मेहनत की थी और तब प्रवेश परीक्षा में सफल हुआ था लेकिन मेरा मन कुछ ऐसा करने को हो रहा था जिससे सामाजिक बदलाव हो सके। मैंने मुंबई आकर अलग अलग निर्देशकों का सहायक बनकर काम सीखा और फिर अपनी फिल्में बनानी शुरू कर दीं।’
बिहार में बाढ़ की समस्या पर बनी उनकी फिल्म ‘कटान’ साल के शुरुआत में आए ट्रेलर के बाद से ही चर्चा में रही। फिल्म ‘जया’ को भी इसी साल के शुरू में रिलीज होना था लेकिन जनवरी में सेंसर बोर्ड में जमा हुई फिल्म ‘जया’ को परीक्षण समिति ने ये कहते हुए सेंसर सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया कि इसमें महिला किरदार को सामाजिक रूप से काफी दबा हुआ दिखाया गया है। धीरू कहते हैं, ‘मुझे तो लगता है इन लोगों ने फिल्म देखी ही नहीं या फिर इन्हें भारत में हो रहे बदलावों की समझ नहीं है। मेरी फिल्म एक सत्य घटना से प्रेरित है।’